हिंदी सावली – अध्याय १८

।।श्री।।
।।अथ अष्टदशोध्यायः।।

इस अध्याय का आरंभ। करू संतों के नाम के संग।
जीन के नाम में है सत्संग। चरित्र अद्भूत है जीन के।।१।।

निवृत्ती, ज्ञानदेव, सोपान। मुक्ताबाई और तुकाराम।
नामदेव, दामाजीपंत महान। संत महाराष्ट्र राज्य के ।।२।।

जनाबाई, गोरा कुम्भार। एकनाथ, चोखा महार।
रहीम और कबीर। काव्य से जिन्हों ने जन जागृती की।।३।।

नरसी मेहता, समर्थ रामदास। सूरदास, कालिदास।
मीराबाई, तुलसीदास। कितने संत कवियों का वर्णन करू।।४।।

तुकामाई और ब्रह्मचैतन्य । रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद।
ऐसे बने गुरु शीष्य। जग का करे उद्धार।।५।।

महान योगी आदि शंकराचार्य। ताजुद्दीन बाबा, शंकर महाराज।
साईं बाबा, गजानन महाराज। स्वामी समर्थ अवलिया।।६।।

श्रीपाद श्रीवल्लभ, नृसिंह सरस्वती। माणिक प्रभू दत्तमुर्ती।
योगीराज वासुदेवानंद सरस्वती। रंगावधूत, नाना तराणेकर।।७।।

दादा महाराज निम्बाळकर। गगनगिरी और भाऊ करंदीकर।
देवदत्त महाराज वढावकर । पांडुरंग शास्त्री आठवले।।८।।

कितने नाम और सुनाऊ। हाथ न रुके लिखती जाऊ।
संतों के कितने गुण गाऊ। मन भर आयें स्मरते हुए ।।९।।

माला बनाऊ इन संत रत्नों की। एक मणी इस माला की।
है संत जानकी। पालक और रक्षक भक्तों की।।१०।।

ईश्वर तक पहोंचने के। कर्म भक्ती योग ऐसे।
तीन मार्ग ज्ञात है। संत इस में से एक चुने।।११।।

योग मार्ग महाकठिन। कड़ी तपश्चर्या और ध्यान धारण।
हमारे अन्दर छुपा ब्रह्माण्ड। पहेचानना सुलभ नहीं।।१२।।

वैसे ही कर्म मार्ग कठीण। व्रत, जप, पवित्र आचरण।
पूजा, स्तोत्र, वेद पठन। शुद्ध कर्मों से पाये प्रभुकृपा।।१३।।

भक्ती मार्ग सुलभ लगे। पर वह सब से कठिन है।
जैसे गगन पास दिखे। पर छूॅं ना पायें कोई ।।१४।।

मोह माया को छोड़। सब से करे सम व्यवहार ।
सब में देखे ईश्वर। सब से प्रेम का वर्तन रखे ।।१५।।

ऐसे ईश्वर तक पहुँचने के। मार्ग तीन अलग है।
पर अंतिम फल एक है। परमेश्वर प्राप्ती।।१६।।

इन संतों को करू प्रणाम। शुद्ध गंगा से जीन के मन।
कल्पवृक्ष है वे स्वयं। वाचकों की इच्छा पूर्ण करे।।१७।।

महान कवी तुलसीदासजी। चरित्रगाथा लिखे दासगणूजी।
गजानन महाराज और साईं की। जो लाखो लोग पढ़ते है ।।१८।।

मधुकर सुळेजी वैसे ही। एक महान सात्विक कवी।
जिन्होंने लिखी “सावली”। और “चैतान्यगाथा” मराठी में।।१९।।

इन और ऐसे सारों को मन ही मन। करू मै शतशः नमन।
और शुरू करू लेखन। इस अंतिम अध्याय का।।२०।।

पिछले अध्याय में। कथन किया मैंने।
के कुसुमजी में। किया था माँ ने शक्तिपात।।२१।।

बहोत भक्तों को लगे। पश्चात माँ के देहावसान के।
अब न कभी दर्शन होंगे। माँ के, हम अभागियों को।।२२।।

पर माॅं की देखो ममता । जो भी उन्हे याद करता।
उन पर कृपाघन बरसता। बेटी के माध्यम से।।२३।।

ताई परळीकर एक भक्त थी। वे हमेशा सोचती।
माँ काश जीवित होती। तो दर्शन होते उन के।।२४।।

एक बार उन की बेटी। बड़ी माता से बीमार हुई।
शरीर पर व्रणों की। तीव्रता थी भयंकर ।।२५।।

ताई हुई चिंतीत। तब उन्हें दिखे अचानक।
खडी थी जानकी माँ शांत। हाथ में थैली लिए।।२६।।

कहा ताई से उन्हों ने। “तुम्हारे घर आयी हूँ रहने।
कुछ दिनों में चली जाउंगी मै। चिंता छोडो, ठीक होगी बेटी”।।२७।।

ऐसे कह कर ताई से। गायब हुई माँ दरवाजे से।
ताई ढूँढने लगी आश्चर्य से। अभी थी, चली गयी कहाँ।।२८।।

बीते कुछ दिन बातों बातों मे। कुसुमजी आयी बेटी को देखने।
ताई परळीकर के घर में। कहे “बड़ी माता का झटका तीव्र है।।२९।।

घटस्थापना करो घर में। आरती करो तीन प्रहर में।
तब लगेगा आराम होने। माता का कम होगा जोर।।३०।।

परसों ही कहा था मैंने। के मै आई हूँ रहने।
पर पहचाना नहीं तुम ने। प्रत्यक्ष बताने पर भी”।।३१।।

मन ही मन याद करे ताई। बात जो जानकी माँ ने कही।
कुसुमजी पधारी थी । जो थी स्वयं माँ का स्वरुप।।३२।।

उस दिन माँ मिली द्वार में। अब उपदेश करे हमे।
अपनी कन्या के मुख से। कैसे चुकाऊॅं माँ के उपकार।।३३।।

कुसुमजी ने पूजा की विधी। ताई परळीकर को बताई।
जिस से भाग गयी आधि व्याधी। आरोग्य लाभ हुआ बेटी को।।३४।।

जानकी माँ की हुई वापसी। उन का प्रत्यक्ष रूप कुसुमजी।
यह जानकर आनंद की वृद्धी। होने लगी भक्तों में।।३५।।

कुसुमजी कहे सब से। ना करे इस बात के चर्चे।
भक्त जान जायेंगे अनुभवों से। आवश्यकता न होगी प्रमाण की ।।३६।।

कभी माँ कुसुमजी के। देह में संचार करे।
कभी सामने बैठ उपदेश करे। दे कभी स्वप्नों में दृष्टांत ।।३७।।

मातृ देवता का स्मरण करे। सद्गुरु ह्रदय में प्रकटे।
माँ की शिष्या बन कर रहे। आजन्म कुसुमजी।।३८।।

सुभक्त जानकी माँ के। कुसुम जानकी अद्वैत भाव से।
कुसुमजी से करे बाते । हितोपदेश पाने के लिए।।३९।।

वर्षा में झूम उठे मोर जैसे। रंग लाई मन की भक्ती वैसे।
मनोकामना पुरी करे ऐसे। जानकी माँ कुसुमजी के ज़रिये।।४०।।

यह द्वितीय स्थान हुआ। श्री जानकी माँ का।
पानी की ओर जाए प्यासा। वैसे कुसुमजी की ओर बढे भक्त।।४१।।

राम नवमी के शुभ अवसर। “जय जय जानकी” यह जयघोष कर।
छोटे बड़े सब मिलकर। मनाते भक्ती महोत्सव।।४२।।

जानकी माँ के भजन कीर्तन। करे भक्तों को तल्लीन।
बहोत आते थे भक्त जन। उत्सव माँ का मनाने।।४३।।

नवरात्री के नौ दीन। कुसुमजी में होता माँ का संचरण।
वैसे ही साथ रहे देवी का गण। साक्षात्कार बताते थे।।४४।।

कभी फूलों का सुगंध रहे। कभी गुलाल कुंकुम उडाये।
कभी हीना मोगरा की खुशबू से। देवी अस्तित्व बताये अपना।।४५।।

सुहागनों का पूजन करे। खाली हाथ कोई न जाए।
सारे भक्त संतोष पाये। देव देवियों के दर्शन से।।४६।।

जैसे स्थान गणदेवी। या विट्ठल भक्तों को पंढरी।
देवी भक्तों को आबू अम्बाजी। वैसे भक्त गण जमा होते।।४७।।

कथा बताये वटसावित्री की। वट वृक्ष का पूजन करती।
उस वृक्ष को दे सद्गती। पूर्व जन्म बता कर उस का।।४८।।

पूर्वजन्मों की कथन कर कथाये। जन्म जन्मान्तर के रिश्ते मिलाये।
नाग दम्पती को मुक्ती दिलाये। सकल भक्तों के समक्ष।।४९।।

जब गये गीरनार लेने दर्शन। तब कपी मार्ग में करे वंदन।
सिंहनी साष्टांग करे नमन। अश्रू बह रहे थे नेत्र से।।५०।।

पूर्वजन्म बताकर उसे । मुक्ती दिलाये शापों से ।
आशीर्वाद सिंहनी पाये जैसे। देह छोड़ चली गयी।।५१।।

भूत पिशाच दूर भगाए। भक्त जादू टोने से बचाए।
इस जन्म में चुकते कराये। पूर्वजन्मों के ऋण अनेकों के।।५२।।

भक्तों को हितोपदेश करे। इच्छापूर्ती के मार्ग से।
भगा दे रुकावटें। देवी मानव देहधारी।।५३।।

ऐसी अनेक कथाये। कितनी आप को बताये।
न कोई रोक पाये। कामधेनु के क्षीरधारा को।।५४।।

सुभक्तों की आज भी। मदद करे माँ जानकी।
माँ के अनुभवों की गिनती। वही कर सके, जो तारे गीन पाये।।५५।।

हमारी प्यारी माॅं जानकी। अपनी छबी से सब देखती।
भक्तों की बाते सुनती। मदद करे संकट में।।५६।।

इसी लिए भक्त जन। उन्हें करने प्रसन्न।
मानस पूजा जैसा साधन। और न कोई दूजा है।।५७।।

इस पूजा को न धन लगे। बस भक्तों की भक्ती से।
मानसपूजा रंग लाये। प्रसन्न हो जाए मन।।५८।।

मन मंदीर को स्वच्छ कर। मन को बनाए शांत निर्मल।
जानकी माँ को प्रेम से बुला कर। कल्पना करो, वे पधारी है।।५९।।

मन में स्थापित करे सिंहासन। सुवर्ण का जीस में जड़े हो रत्न।
स्वागत कर, किया स्थानापन्न। माँ को उस सिंहासन पर।।६०।।

कहा “व्याकुल हो रहा था मन। माँ, आप के लेने दर्शन।
नैनो में आ पहुंचे प्राण। बड़ी कृपा जो पधारी आप”।।६१।।

माँ बैठे जब सिंहासन पर। प्रणाम किये वारंवार।
माँ का करने श्रम परिहार। अपने हाथों से पंखा किया ।।६२।।

उन के पाद्य पूजन करने। सुवर्ण पात्र ले कर हाथ में।
माँ के चरण रखे उस में। नमन कर, “जय जानकी” कहा ।।६३।।

विविध सुगंधीत तेल लिए। चरणों पर माँ के मले।
पदप्रक्षालन किया धीरे धीरे। और फिर पौछे पद युग्म।।६४।।

मधु, गोरस, दधी, धृत। शर्करा को किया मिश्रीत।
उस से बनाया पंचामृत। और महापूजन आरंभ किया।।६५।।

चांदी के कलशों में। पवित्र नदियों का पानी लिए।
अभिशेक की तैयारी करे। पवित्र तीर्थामृत से।।६६।।

मिलाया केसर और चन्दन। मला चरणों में उगटन।
अभिषेक किया मन ही मन। एक एक पवित्र जल से।।६७।।

कहा सुवर्ण पात्र भर कर। “हर हर गंगे, नर्मदे हर हर”।
और डाला पानी पदपंकज पर। धन्य हो गये पाद्यपुजन से।।६८।।

चरण तीर्थ किया प्राशन । स्वशरीर पर किया प्रोक्षण।
ताके हो पापों का क्षालन। प्रार्थना की श्रद्धा से।।६९।।

रेशमी साड़ी और चोली सुन्दर। माँ को भक्तीभाव से देकर।
शाल डाली तन पर। बीठाया सिंहासन पर फिर से।।७०।।

मूल्यवान वस्त्र अर्पण कर। कुंकुम अक्षत लगाये माथे पर।
बाल बनाने सुन्दर। कंघी दी हाथों में।।७१।।

शमी, बेल, गुलाबों से। मोगरा और चम्पा के फूलों से।
सुन्दर सुवासित पुष्प मालाये। बनाकर अर्पण की।।७२।।

मांग में भरा सिंदुर। लगाए उमदे हीना केवडा के इत्तर।
नथनी पहनाई नाक पर। माँ को अतीप्रीय है इसलिए।।७३।।

अर्पण किये अनेक सुवर्णालंकार। रत्न जड़े माणिक मोतियों के हार।
बाजूबंद दिये नागाकार। कमर पट्टा दिया पहनने।।७४।।

पैरों में पहनाये नुपूर। पदांगुलियों में अलंकार।
सर से पैर तक सजा कर। अनेक सुवर्णालंकार पहनाये।।७५।।

धुप दीप जलाकर। मन में प्रेम भाव भर।
श्रद्धापूर्ण आरती कर। “जय जय जानकी” जयघोष किया।।७६।।

“जय जानकी दुर्गेश्वरी माँ। हम गरीबों की करने रक्षा।
इस धरती पर अवतार लिया। सहस्त्र प्रणाम आप को।।७७।।

हम प्रतिदीन जलते है। अनेक दुखों के ताप में।
जगह दो आप की छाया में। इन कष्टों से मुक्ती दो।।७८।।

नेक काम कर के भी। ढंग के फल मिलते नहीं।
अब संभाले माँ आप ही। बालक है हम आप के।।७९।।

जो मन से आये शरण। आप ने किया उन का पालन।
हम पर बरसाओ कृपाघन। आस लगाए बैठे है”।।८०।।

मन में प्रार्थना ऐसे कर। अष्टभाव आये भर।
माँ के चरण हाथों में धर। आनंदाश्रू से धोये।।८१।।

माँ के क्षुधा शमन के लिए। मिष्टान्नों का भोजन लाये।
सोने की थाली में। हाथ से खिलाया माँ को।।८२।।

शांति से भोजन होने दिया। जो भी उन्हें पसंद आया।
वह प्रेम से बार बार परोसा। मांगी क्षमा भूल चुक के लिए।।८३।।

जो भी थाली में शेष रहा। वह अपने हाथों से उठाया।
प्रसाद मान कर खा लिया। ऐसे संपन्न हुआ भोजन।।८४।।

फिर मुख प्रक्षालन कराया। ताम्बुल और श्रीफल दिया।
सुवर्ण और धन दक्षीणा। अर्पण की बगैर लालच किये।।८५।।

बहुमूल्य रत्न दीपों की। भावुक होकर की पंचारती।
करी प्रदक्षीणा माँ की। साष्टांग नमन किया चरणों में।।८६।।

फिर गायन भजन किया। भावपूर्ण होकर कहा।
“जय जगदम्बे जानकी माँ। मुझ से हमेशा सेवा कराओ।।८७।।

माँ, आप के गुण गाने। हमेशा उत्साह रहे हम में।
बना लो हर जन्म भक्त हमें। ताके उद्धार हो हमारा।।८८।।

आप लावण्यमयी, तारुण्यमयी। आप चैतन्यमयी, कारुण्यमयी।
आप कल्याणमयी, आनंदमयी। आप कल्पनातीत ज्योतिर्मयी।।८९।।

आप परा, मध्यमा, पश्यन्ती। आद्दया, वेदगर्भा, शारदा, भारती।
जगद्व्यापिनी, सर्वा, शुक्ला, विणावती। वागीश्वरी, प्रज्ञा, ब्रह्मकुमारी।।९०।।

भक्तों का करने कल्याण। आप ने किया देह धारण।
आप महादेवी असाधारण। अनंत प्रणाम आप को।।९१।।

आप बसी है दृश्य-अदृश्य में। आप है स्थूल-सूक्ष्म में।
आप है कण कण में। बसी हुई इस ब्रह्माण्ड के।।९२।।

आप के लिए कुछ भी। इस जग में असंभव नहीं।
शरण आया मै मतिहीन दुखी। चरणों में पडा हूँ आप के।।९३।।

कृपादृष्टी से अपने। माँ उद्धारो हमें।”
ऐसी प्रार्थना करे। भावपुष्पांजलि अर्पण की।।९४।।

प्रदक्षीणा कर, पूर्ण की। मानस पूजा मन में ही।
चरणों में मस्तक रखते ही। अभयकर रखा माँ ने।।९५।।

कहा ” सेवा स्वीकार ली। तुम ने जो मन से की।
प्रसन्न हुआ मन भी। सच्चे भक्ती भाव से।।९६।।

सद्भक्त हमारे बनोगे। गुरुकृपा प्राप्त करोगे।
सारे सुख पाओगे। मेरे आशीष है निरंतर”।।९७।।

ईस जानकी छाया का वाचन। भाव भक्ती से करे जो सम्पूर्ण।
उस की सदीच्छाए पूर्ण। करेंगी जानकी माँ।।९८।।

श्रद्धावान भक्तों को निश्चीत। फल देगा यह ग्रंथ।
हुआ यह देह कृतार्थ। ग्रंथपुर्ती के समाधान से।।९९।।

मधुकर सुळेजी ने लिखा हुआ। जानकी माँ की कथाओं का।
मराठी “सावली” ग्रंथ, उस का। यह अनुवाद किया मैंने।।१००।।

मैंने थोडा प्रयास किया। चुटकी भर स्वाद मिलाने का।
बड़े मन से करे क्षमा। अगर कोई त्रुटी हो।।१०१।।

मधुकर सुळेजी जितनी। मेरी कतै ही योग्यता नहीं।
मै पामर अज्ञानी। जैसे तैसे लीख पायी।।१०२।।

बुद्धी से अपनी। मैंने कुछ भी लिखा नहीं।
माँ ने ही लिखवाई। जानकी छाया मेरे से।।१०३।।

जैसे लेखनी हाथ में लिए। कोई बुद्धीमान लिखे।
बुद्धी न होती लेखनी में। वैसे मै बनी लेखनी माँ की।।१०४।।

पर लेखनी कभी कभी। लिखते समय गिराये स्याही।
वैसे त्रुटी हुई कोई। तो समझे, मेरी दुर्बुद्धी से हुई।।१०५।।

दे श्रोताओं को माँ। सदबुद्धी, धन, संतान, बल, विद्या।
पूर्ण करे समस्त सदीच्छा। अंत में गती और मोक्ष दिलाये।।१०६।।

परीपूर्ण हुआ जानकी छाया ग्रंथ। देव और संतों के पाकर आशीर्वाद।
माघ मास के वसंत पंचमी का मुहूर्त। पाया, अट्ठाईस जनवरी दो हज़ार बारह को।।१०७।।

ईस पोथी मे जिन का किया स्मरण। उन देव संतो के वंदु चरण।
उन्ही को करू यह ग्रंथ अर्पण। उन्होने पुरी करायी ग्रंथसेवा।।१०८।।

।।ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य अष्टदशोsध्यायः समाप्तः।।

।।शुभं भवतु।।

।।श्रीरस्तु।।

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