हिंदी सावली – अध्याय १४

।। श्री।।
।। अथ चतुर्दशोध्यायः।।

श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।

इस अध्याय के आरंभ में। रामकथा का सारांश सुने।
रघुबीर स्वयं पधारेंगे। रामायण सुन कर।।१।।

बाल कांड में दशरथ राजा। और उन की तीन रानियाँ ।
कैकेयी, सुमित्रा और कौशल्या।संतान की आस धरे ।।२।।

पुत्रकामेष्टि यज्ञ करे। तब विष्णुजी जन्म ले।
कौशल्या के उदर से। श्रीराम अवतार धारण कर ।।३।।

वशिष्ठ ऋषी के आश्रम में। विद्या पाई श्रीराम ने।
संग बंधुओं के अपने । लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ ।।४।।

त्राटिका का वध कर। अहिल्या को मुक्त कर।
शीवधनुष्य तोड़ जीता स्वयंवर । विवाह किया सीता से ।।५।।

अयोध्या काण्ड में। दशरथ राज्याभिषेक करना चाहे।
पर कैकेयी विरोध करे। मंथरा के मदत से ।।६।।

राम वनवास भोगने गये। सीता और लक्ष्मण साथ गये।
दशरथ पुत्र वियोग सह न पाये। स्वर्गवासी हो गये ।।७।।

निशादराज से मिले। केवट की नाव में चले।
भरत शत्रुघ्न मिलने आये। राज्य अर्पण करने ।।८।।

पर एकवचनी श्रीराम ने। राज्य नकारा चले भोगने।
चौदह साल बनवास में। भरत श्रीराम पादुका ले गये ।।९।।

अरण्य कांड में। खर दूषण का वध करे।
शूर्पणखा की नाक काटे। वह रावण की सभा में रोयी ।।१०।।

श्रीरामजी मारीच का वध करे। जो था सुवर्ण मृग के रूप में।
रावण सीता हरण करे। जटायु को मार कर ।।११।।

किश्किंदा काण्ड में। श्रीराम हनुमानजी से मिले।
वाली का वध करे। सुग्रीव की वानर सेना पाई ।।१२।।

सुन्दर काण्ड में। हनुमानजी चले समुद्र लांघने।
सुरसा से मिले समुद्र में। सिंघिका का वध किया ।।१३।।

विभीषण से मिले लंका में। सीता भेट की अशोक वन में।
लंका जलाई पूंछ से अपने। ऐसी लीलाए हनुमान की ।।१४।।

राजा घोषित किया। बिभीषण को लंका का।
सागर पर बांध लिया। सेतु वानर सेना ने ।।१५।।

युद्ध कांड में। रावण मंदोदरी की बिनती ठुकराए।
युद्ध घोषीत करे । श्रीरामजी के विरूद्ध ।।१६।।

बड़े योद्धा हारे श्रीराम से। मेघनाद और कुम्भ कर्ण जैसे।
जब लक्ष्मण गीरे बेहोशी से। संजीवनी वनस्पती की आवश्यकता थी ।।१७।।

तब हनुमानजी पर्वत उठा लाये। संजीवनी से लक्ष्मण बचाए।
रावण वध किया अंत में। जीते धर्मयुद्ध श्रीराम ।।१८।।

राज्याभिषेक किया विभीषण का । सीता करे अग्नीपरीक्षा।
ऐसे समाप्त हुआ। युद्धकांड मनोहर ।।१९।।

उत्तर काण्ड में। श्रीराम अयोध्या लौटे।
भरत से मिले प्रेम से। शासन करे आयोध्या में ।।२०।।

धोबी की बात छुप कर सुने। अच्छे शासक का उदहारण बने।
सीता को त्यागा प्रजा के लिए। शोकाकुल हुई सीता ।।२१।।

वाल्मीकि आश्रम रही सीता। लव कुश का जन्म हुआ।
श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ किया। छोडा घोडा यज्ञ का।।२२।।

लव कुश वह अश्व पकडे। सेना संग युद्ध करे।
श्रीराम के बंधू हारे। हनुमानजी को बंदी बनाया लव कुश ने ।।२३।।

श्रीराम संग युद्ध करे। तब वाल्मीकि ऋषी आये।
श्रीराम को बताये। लव कुश उन्ही के पुत्र है ।।२४।।

इसी कांड के अंत में। सीता समाई भूमी में।
लव कुश रहे अयोध्या में। राज्य किया दीर्घ काल ।।२५।।

ऐसा मर्यादा पुरुषोत्तम। विष्णू अवतार श्रीराम।
उन का आशीष पाये श्रोते जन। ग्रंथरचना सुलभ हो ।।२६।।

यह जानकी चरित्र। ग्रंथ अद्भूत पवित्र।
भाग्य का उद्धारक मित्र। पढ़े इसे नियम से ।।२७।।

पिछले अध्यायों में। पढ़ा हम सब ने।
माँ गयी छोड़ कर हमें। पर फिर भी अस्तित्व बाकी रहा ।।२८।।

भक्तों की पुकार सुन कर। दौड़ आये भूलोक पर।
बच्चों को दुखी देख कर। कैसे शांत रहे माँ ।।२९।।

देवर कुसुमजी के। नाना नामक थे।
विवाह की उन के । तैयारी हो रही थी ।।३०।।

बिलिमोर्या गाॅंव का। निश्चित किया रसोइया।
बूँदी के लड्डू बनाने का। इरादा था सब का ।।३१।।

बूँदी बनाई एक मण की। पर न आयें बावर्ची।
दोपहर हो गयी। सबेरे आनेवाले थे।।३२।।

लोग प्रतीक्षा कर रहे थे। संदेश भेजे घर उस के।
रात हुई फिर भी न आये। बावर्ची घर पर ।।३३।।

उस के घर से पता हुआ। बावर्ची दुसरे गांव गया।
अब कोई भरोसा न रहा। उस के वापस आने का ।।३४।।

अकेला ही था गांव में। इस लिए उस पर निर्भर थे।
सारे चिंता करने लगे। के कार्य कैसे सफल हो ।।३५।।

बूंदी का मिश्रण बनाया था। वह ख़राब हो जाता।
सारा कुछ व्यर्थ होता। अगर रात में न लड्डू बने ।।३६।।

सारे लोग चिंता करे। अब बावर्ची कहाँ से मिले।
तब कुसुमजी के मन में। एक विचार आया ।।३७।।

पूजाघर के अंदर। भगवान के सामने खड़े रह कर।
मन ही मन बिनती कर। कहे माँ से कुसुमजी ।।३८।।

कहे “प्रसंग देवरजी के ब्याह का। पक्वान रखा लड्डू का।
बावर्ची ने दिया धोखा। अब आप ही संभाले माँ ।।३९।।

अगर आशीष हो आप का। तो कुछ न चले संकटों का।
अब घर के शुभ कार्य का । आप पर है उत्तरदायित्व ।।४०।।

रहे कमी जहाँ भी । वह भर लो आप ही।
असंभव को संभव बनाने की। क्षमता है आप में ।।४१।।

बिनती कर ऐसे। प्रतीक्षा करने लगे।
तब रात्र प्रहर को दो रसोइये। घर आये कंधे पर झारे ले कर ।।४२।।

वे दोनों कहे आकर। “काम रुका बूंदी के बगैर ।
दो ना जल्दी सामान लाकर । ताकी बूंदी बनाये हम” ।।४३।।

पूछे “कितनी बनाये बूंदी”। “एक मण की” कहे सब ही।
सुन कर चुल्हा जलाये जल्दी।काम करने लगे वे ।।४४।।

केवल दो घंटों में। बूंदी बनाई उन्हों ने।
लड्डू लगे बनाने। आनंद हुआ सब लोगों को ।।४५।।

फिर सब से कहे हस कर। “हमें जाना होगा सत्वर।
कल सबेरे आकर। पैसे ले जायेंगे हम ।।४६।।

ब्याह हुआ शान से। बगैर किसी कमी के।
पर रसोइये न लौटे। अपने पैसे लेने को ।।४७।।

ढूंढे बिलिमोर्या और नवसारी। बहोत पूछ ताछ करी।
कोई खबर न मिली। न जाने आचारीद्वय को कोई ।।४८।।

मन ही मन आश्चर्य करे । किस ने इतने श्रम किये ।
पैसे भी नहीं लिए। तब कुसुमजी को दृष्टांत हुआ ।।४९।।

कहे माँ सपने में आकर। “बावर्ची का रूप धर।
कुल दैवत आप के आयें घर। बापूजी और खंडेराव।।५०।।

समस्या देख कर आप की। कुल दैवत बने बावर्ची।
लड्डू बनाए स्वयं ही। दौड़ आये सहायता करने ।।५१।।

स्वप्न बताया सभी को। आश्चर्य हुआ लोगों को।
माँ की लीलाओं को। समाप्ती का ज्ञान नहीं ।।५२।।

मुंबई के वैद्य प्रभाकर। परिवार सहीत पहुंचे मणीनगर।
स्वयं गये भावनगर। काम के सिलसिले में ।।५३।।

जब पहुंचे मणिनगर। दंगे शुरू हो उधर।
फिर भी जाने लगे भावनगर । काम न टाला जाए ।।५४।।

पर यात्रा करते हुए। बीच में फस गये।
क्यों के दंगे बढ़ गये। क्या करे समझ न आये ।।५५।।

कर के बहुत विचार। पत्नी को रखे मणीनगर।
अकेले गये भाव नगर । काम निपटाए शीघ्र ही ।।५६।।

परन्तु भावनगर में। लगे दंगे बढ़ने ।
संचारबंदी लगी गुजरात में । कैसे पहुंचे मणीनगर ।।५७।।

फ़ौजी खड़े थे रास्ते में। कैसे पहुंचे पत्नी को लेने।
रेल गाडी से मणीनगर पहुँचने। रेलवे स्थानक दूर था ।।५८।।

टैक्सी थे ढूँढते । पर टैक्सीवाले मना करते।
दंगों से थे डरते। तैयार न हो कोई चलने ।।५९।।

वैद्यजी लगे कहने। अधिक पैसे लेने।
और अहमदाबाद चलने। पर कोई न माने उन की बात ।।६०।।

तब हुए निराश। बायजी को करे याद।
कहे “माँ तुम पर बुनियाद। है हमारे जीवन की ।।६१।।

फसा हुआ हूँ दंगे में। लोग आग लगाये गावों में।
खून हो रहे है रास्ते में। कैसे होगी वापसी” ।।६२।।

तब एक टैक्सी आयी सामने। चालक लगा पूछने।
“क्या चलेंगे आप साथ में। जा रहा हूँ अहमदाबाद” ।।६३।।

वैद्यजी गये दौड़ कर। कहे “पहुंचाए मणीनगर।
चले यहाँ से सत्वर। मूह माँगा दाम दूंगा” ।।६४।।

टैक्सी जाने लगी तेज़ी से। रास्ते में पुलिस तैनात थे।
कोई न टैक्सी को रोके टोके। आश्चर्य करे वैद्यजी ।।६५।।

गाडी आयी मणीनगर। वैद्यजी पहुंचे घर।
टैक्सी चालक के मान कर आभार। पूछे “कितने पैसे हुए?” ।।६६।।

टैक्सी चालक उन से कहे। “पुरे दस रुपये हुए।
शीघ्र ही दीजिये। जल्दी में हूँ, जाना है” ।।६७।।

पैसे हाथ में लिए। झट से चला जाए।
लोग अचंबित हुए। वैद्यजी को घर देख कर ।।६८।।

वैद्यजी सब से कहे। “भावनगर से टेक्सी लिए।
मूल्य केवल दस रुपये। देकर, आया मै यहाँ पर” ।।६९।।

भावनगर से मणीनगर। टेक्सी का मूल्य दोसौ से ऊपर।
कौन था यह दानवीर। दस रुपये में ले आया ।।७०।।

तब वैद्यजी ने कहा। “सारे टेक्सीवालों ने मना किया।
आखिर माँ को शरण गया। माँ से सहायता माँगी ।।७१।।

ठीक तब ही टैक्सी मिली। माँ ने आस की पुरी ।
जीस पर उस ने कृपा करी। उस को भय रहे कैसा ।।७२।।

माँ को साष्टांग नमन कर। पती पत्नी चले सत्वर।
गुजरात से मुंबई की ओर। अपने घर पहुंच गये ।।७३।।

जैसे साईं चरित्र में। स्वयं साईं टाँगे में।
भक्तों को इच्छीत ठीकाने। पहुंचाते थे भेस बदल कर ।।७४।।

वैसे ही किया माँ ने। वैद्यजी को ले आयी ठिकाने।
टैक्सी के बहाने। पहुंचाया घर सुरक्षित ।।७५।।

कथा वसंतजी धुमाल की। भोजनालय में मेनेजर की।
मनचाहे होदे की नौकरी थी। खाद के कारखाने में ।।७६।।

भोजनालय का सामान। खरीदते थे वे स्वयं ।
तरकारी हो या धान। खरीदने की थी जिम्मेदारी ।।७७।।

अंदाज़ खाने का रोज़ के । लगाकर भोजन बनवाते।
बावर्चीयों से पकवाते। तरह तरह के पकवान ।।७८।।

एक दीन दावत रखी। निमंत्रीत थे बड़े अधिकारी।
सोचे बनायेंगे रोटी और पुरी। गेहू का आटा पीस लाये ।।७९।।

चार पाँच मण लाये आटा । आधे आधे मण के आटे का।
रोटियों और पुरीयों का। था इरादा मन में ।।८०।।

जैसे आटा गुन्दने लगा । बावर्ची को संशय हुआ।
उन्होंने वसंतजी से कहा। संदेह अपने मन का ।।८१।।

वसंतजी पुरी चाखत। थूंक डाले मूह से त्वरीत।
वह आटा था ख़राब। कंकड़ भी पीसे गये थे उस में ।।८२।।

सारा आटा खराब था। समय हो रहा था।
निमंत्रीतों के आने का। ना समझे क्या खिलाये उन्हें ।।८३।।

दूसरे व्यंजन बनाने का। अधिक समय नहीं था।
कंकड़वाली पुरियां खिलने का। धैर्य नहीं था वसंतजी में ।।८४।।

मेहनत व्यर्थ गयी सारी। उन की थी नयी नौकरी।
वरिष्ठों को खिलाये यह पुरी। तो बचे न उन के क्रोध से ।।८५।।

तब माँ की छबी के सामने। वे लगे प्रार्थना करने।
“माँ, दी नौकरी आप ने। अब आप हे संभलियेगा ।।८६।।

आटे संग कंकर भी पीसे है। पुरियां रोटीयां ख़राब है।
अब आप ही रक्षा कीजिये। मै तो यही परोसुंगा” ।।८७।।

प्रार्थना कर ऐसी। कहे सब से वसंतजी।
“परोसे खाना ऐसे ही। जो होगा, देखा जाएगा” ।।८८।।

भोजन करने लगे अतिथि। परोसें उन्हें पुरी और रोटी।
बड़े मज़े से खाए वे भी। पेट भर खाए सारे लोग ।।८९।।

किसी को न समझी। रोटी और पुरी की खराबी।
माँ को शरण गये वसंतजी। जब सारे अतिथी चले गये ।।९०।।

बाकी पुरीयाॅं रोटीयाँ चखी। वे सारी ख़राब थी।
माँ ने उन की लाज रखी। माँ को साष्टांग प्रणाम किया ।।९१।।

जो जाए मन से शरण। माँ करे उस का रक्षण।
माँ का करे हमेशा स्मरण। संकटों से बचाएंगी वे ।।९२।।

अब कथा भक्त की। जिस ने थी रखी।
पूजा सत्यनारायण की। मुंबई के विलेपार्ले में ।।९३।।

भक्त थे शौक़ीन। रखा उन्हों ने कार्यक्रम।
किसी का सुश्राव्य गायन। रंग लाया समारोह ।।९४।।

बहोत लोग थे आये। रात्र प्रहर था इस लिए।
मध्यंतर में काफी बनाए। इलायची जायफल ड़ाल कर ।।९५।।

इलायची जायफल वाली काफी। किसी ने चख देखी।
“फटे हुए दूध की। बनी है” ऐसे कहे वह ।।९६।।

और रात्र समय में। सारे दूकान बंद हुए।
कहीं दूध न मिले। ऐसी समस्या मुंबई की ।।९७।।

तब मध्यंतर हुआ। यजमान के पत्नी ने बुलाया।
कालाजी को, कही समस्या। कहे “माँ को पुकारे आप ।।९८।।

आप की बात वे मानेंगी। भलाई चाहे वे भक्तों की।
वरना नाक कटेगी। सारी बिरादरी में हमारी” ।।९९।।

तब उन से कालाजी कहे । “और एक ही कप बनाये।”
मालाकिनजी बना कर दे। झट से एक कप काफी।।१००।।

मन ही मन प्रार्थना करे। माँ को काफी का भोग चढ़ाये।
मन में श्रद्धा लिए। कहे “प्रसाद स्वीकारो माँ” ।।१०१।।

वह प्रसाद कप मिलाये। पहेले बनाये काफी में।
गंध उड़ गया काफी से। फटे हुए दूध का ।।१०२।।

निमंत्रीतों को काफी पिलाये। कप भर भर के ।
लोग प्रशंसा करते हुए। पी गये सारी काफी ।।१०३।।

किसी को न पता चला। फटे दूध का रहस्य भला।
माँ ने जिसे पाला। उस का बुरा कैसे हो ।।१०४।।

यजमान की पत्नी ने। कालाजी को आलिंगन दिये।
आभार प्रकट कर कहे। “कैसे चुकाऊ आप का ऋण ।।१०५।।

आँख भर आयी उन की। कहे “जय जय माँ जानकी।
आप ने आज लाज रखी।” प्रणाम किया साष्टांग ।।१०६।।

यह माँ की सुन्दर कथायें। आप को सुनाते हुए।
मन मेरा भर आयें। लेखनी न रुकना चाहे ।।१०७।।

जो करे माँ का स्मरण। सच्चे मन से जाए शरण।
वह उस के ममता का धन। पाये बगैर शुल्क के ।।१०८।।

।। ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य चतुर्दशोsध्यायः समाप्तः।।

।।शुभं भवतु।।
।।श्रीरस्तु।।

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