हिंदी सावली – अध्याय १७

।।श्री।।
।।अथ सप्तदशोध्यायः।।

आरंभ में इस अध्याय के। श्रीमत भगवत् गीता के।
सार की जानकारी ले। गीता ज्ञान प्राप्त करे।।१।।

विशाद योग में। कहने पर अर्जुन के।
श्रीकृष्ण रथ खड़ा करे। कौरव पांडवों की सेनाओं के बीच।।२।।

अपने सम्बंधीयों को देखे। और पार्थ श्रीकृष्ण से कहे।
के वह युद्ध ना करना चाहे।सोचे युद्ध फल के बारे में ।।३।।

तब सांख्य योग में। श्रीकृष्ण पार्थ से कहे।
जन्म, मरण और मारना है । भ्रम मानव के मन का।।४।।

आत्मा अमर होता है। जो देह धारण करता है।
देह मृत्यू पाता है। यह सत्य सुनो ।।५।।

श्रीकृष्ण कर्म योग में। सुन्दर उपदेश करे।
कहे फल की अपेक्षा ना करे। और कर्म करते रहे ।।६।।

ज्ञान योग में। श्रीकृष्ण वर्णन करे।
वे स्वयं अनेक जन्म ले। और ज्ञान बाॅंटे लोगो में।।७।।

नीतिवान लोगों की रक्षा करे। अधर्मीयों का विनाश करे।
गुरु का महत्व समझाये । इस अध्याय के माध्यम से ।।८।।

कर्म वैराग्य योग में। पार्थ यह प्रश्न करे।
कर्म करे या ना करे। इस में क्या चुना जाय।।९।।

श्रीकृष्ण यह उत्तर दे। दोनों लाभदायी हो सकते है।
पर कर्म करना उचित है। कर्म योग के अनुसार।।१०।।

ध्यान योग में। श्रीकृष्ण आत्मबोध सिखाये।
और फिर वर्णन करे। ध्यान और समाधी अवस्था का।।११।।

परमहंस विज्ञान योग। इस में करे श्रीकृष्ण।
अपनी माया का वर्णन। और कहे पार्थ से।।१२।।

जो इस मोह माया को टाले। और अध्यात्मिक ज्ञान के ज़रिये।
परमसत्य को शरण जाए। उसे पूजा की आवश्यकता नहीं।।१३।।

अक्षर परब्रह्म योग में। इस जीवन के अंत में।
जो विचार रहे मन में। मृत्यू के समय।।१४।।

उन का महत्व बतायें। जो अंत समय में।
परमेश्वर का स्मरण करे। वो सद्गती पाये आगे।।१५।।

राजविद्या गुह्य योग में। श्रीकृष्ण पार्थ को बताये।
माया में अटका जीव कैसे। जीवन कंठे ईश्वर की देखरेख में।।१६।।

सृष्टी के कण कण में। श्रीकृष्ण है बसे।
यह गुह्य ज्ञान दे। इस अध्याय में श्रीकृष्ण।।१७।।

विभूति विस्तार योग में। श्रीकृष्ण कथन करे।
के वह नियंत्रक है। अध्यात्मिक और भौतिक जगत के।।१८।।

इस अध्याय में श्रीकृष्ण के। वर्णन है अनंत स्वरूपों के।
उस असीम सत्य के। परमेश्वर जीसे कहते है।।१९।।

श्रीकृष्ण विराट रूप दिखाए। अर्जुन अचंबित राह जाये।
विश्वरूप दर्शन से। विश्वरूप दर्शन योग में।।२०।।

भक्ती योग में श्रीकृष्ण। भक्ती का करे वर्णन।
भक्ती और भक्तों के गुण। इन का विवेचन करे ।।२१।।

प्रकृती और पुरुष के बारे में। क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग है।
देह तो नश्वर है। आत्मा है अनादी अनंत अविनाशी ।।२२।।

गुणत्रय विभाग योग में। सत्व, रज, तम गुण विस्तार में।
बताये श्रीकृष्ण ने। सुने मन से पार्थ।।२३।।

पुरुषोत्तम योग में। अंतर्यामी, सर्वव्यापी से।
सर्वशक्तिमान ईश्वर के। गुण वर्णन किये है।।२४।।

एक वृक्ष की कल्पना बताये। जीस के मूल है स्वर्ग में।
मोह माया की शाखाए। जब काट फेको, तब ईश्वर पाओगे।।२५।।

देवासुर संपद विभाग योग में। दैवी और असुरी स्वभाव बताये।
क्रोध और वासना का नाश करे। सही राह चुने बुद्धी से।।२६।।

श्रद्धात्रय विभाग योग में। श्रीकृष्ण बताये विस्तार से।
तीन विभाग भौतिक सत्ता के। सात्विक, राजस और तामसी।।२७।।

मोक्ष उपदेश योग में। सारे अध्यायों का सारांश है।
कर्म और फल अर्पण करे। श्रीकृष्णार्पणमस्तु कह कर।।२८।।

अनन्य भाव से। श्रीकृष्ण को शरण जाये।
वही सच्चा धर्माचरण है। जो जीवन परिपूर्ण करेगा।।२९।।

श्रीमत भगवत् गीता के पवित्र। फलदायी उपदेश को स्मर ।
श्रोताओं के सुख शांती की प्रार्थना कर। ग्रंथ को आगे बढ़ाऊ।।३०।।

पिछले अध्याय में। देख लिया आप ने।
देह त्यागा माँ ने। पर अस्तित्व ज़रूर रहा था।।३१।।

भक्तों का भाव देखे। माँ कृपा बरसाये।
भक्त बन जाए। जन्म जन्मान्तर के ऋणी।।३२।।

एक एक कथा सून। गद गद हो जाए मन।
नेत्र हो अश्रुपूर्ण। माँ की ममता देख कर।।३३।।

जैसे छोड़े वृक्ष बीज अपने। जो दूसरा वृक्ष बने।
वैसे जानकी माँ ने। रखा बीज अपनी कन्या में।।३४।।

स्मरें पिछले अध्याय । कालाजी के ब्याह के समय।
कुसुमजी को दी थी राय। अपने निर्वाण कार्य की।।३५।।

उसी समय उन से कहा। “यह कांटो भरा मुकुट रखा।
जन कल्याण करने का। कार्य सौपा तुम्हारे ऊपर”।।३६।।

कुसुमजी उन से कहे। “यह जिम्मेदारी बड़ी है।
मेरे से यह न हो पाये “। पर हस कर बोली माँ।।३७।।

“जैसे श्रीकृष्ण रहे पार्थ के संग। वैसे मै रहूंगी तुम्हारे संग।
तुम्हारे ज़रिये करूंगी जन कल्याण। योग्य समय आने पर”।।३८।।

शक्तिपात किया माँ ने। और अधुरा कार्य लगी करने।
जानकी माँ निर्गुण रूप में। कुसुमजी के माध्यम से।।३९।।

जीस बोधीवृक्ष तले। भगवान बुद्ध तपस्या करे।
इस लिए महत्व पाये। बोधी वृक्ष भगवान बुद्ध का।।४०।।

जैसे वारकरी महाराष्ट्र के। पंढरपुर है जाते।
वैसे ही स्थान महात्म्य है। गणदेवी का भक्तो के लीये।।४१।।

आज भी गणदेवी स्थान। है परम पावन।
जहां अपने अस्तित्व के निशान।छोड़ गयी जानकी माँ।।४२।।

उस घर का मालिक भक्त है। घर के पूजाघर में इसी लिए।
स्वयंभू त्रिशूल निकल आया है। ऐसा महिमा स्थान का।।४३।।

जैसे देखे धृतराष्ट्र। संजय की दृष्टी से कुरुक्षेत्र।
वैसे ही गणदेवी श्रीक्षेत्र। श्रोते आज आप देखे।४४।।

मधुकर सुळेजी ने। मूल मराठी ग्रंथ में।
जो वर्णन किया है। वह आप को सुनाऊं।।४५।।

मालुजी संग गये। बिल्लीमोर्या गाव में उतरे।
एस टी से जाने लगे। गणदेवी सहकुटुंब।।४६।।

वेंगाणीया नदी देखी रास्ते में। जहां शीव मंदिर के आँगन में।
माँ गरबा खेली नवरात्रि में। दो रूपों में दिखाइ दी।।४७।।

वर्षा के ऋतु में। भर कर यह नदी बहे।
जान इसी नदी में । त्रिम्बक की बचायी थी।।४८।।

आगे एक मंदीर देखा। भाग्यवान पुजारी जहां का।
जो अभिषेक करता था। माँ के घर में।।४९।।

मामलेदार की देखी कचेरी। जहां दादा ने की नौकरी।
मालुजी थी कह रही । एक एक याद बचपन की।।५०।।

दारुवाडा के मोड़ पर। एक दर्गा था सुन्दर।
यहाँ के भक्त पीर। माँ के दर्शन करने आते।।५१।।

आगे चल तुळजा भवानी के। मंदीर जाकर दर्शन किये।
बाहर आकर वहां से। देखा जानकी माँ का मंदिर।।५२।।

देखा दो माले का घर। करे मन में जयजयकार।
पूर्वाभिमुख प्रवेशद्वार। आँगन है घर के सामने ।।५३।।

विस्तृत बरामदा देखा। और माँ के पूर्व जन्म का।
भैसा बंधू याद आया। जो गोद में सर रखता था।।५४।।

बिजली को रोके आकाश में। यहीं मालुजी को दिखाने।
और इसी आँगन में। गंगाजी प्रकट हुई थी।।५५।।

इस सीडी को वंदन करे। यहीं मिल बैठते थे सारे।
यही गणेशजी थे पधारे। आमंत्रण करने इंद्र के यज्ञ का।।५६।।

पहले कमरे में थे बैठे। यहीं थे सारे झुला झुलते।
दक्षीण दिशा में उस के। और एक लम्बा सा कमरा था।।५७।।

मध्य में कमरे के। स्तंभ लगे हुए थे।
पूर्व पश्चीम को द्वार थे। दक्षीण के बीच थी अलमारी।।५८।।

कह रही थी मालुजी। इसी झूले पर प्रकटी।
जगदम्बा दुर्गेश्वरी। झुला रही थी देवीयाँ उन्हे।।५९।।

इसी झुलेपर “शुभं करोति”। बोले, जो सायं प्रार्थना थी।
अनेक रूपों में देखी। नानी मालुजी ने।।६०।।

दुसरे कमरे में। कोना था उत्तर दिशा में।
सीडीयाँ थी दक्षिण में। पश्चिम में था रसोईघर।।६१।।

इसी कोने में स्वयंभू त्रिशूल था। जो माँ का स्मृतिचिन्ह था।
प्रदर्शन किया अनेक लीलाओं का। इसी पूजाघर में, माँ ने।।६२।।

यहीं प्रकट होती थी देवियाँ। नवरात्री में खेलने गरबा।
इसी के निचले कोने से निकला। समूह नारियलों का।।६३।।

प्रसाद पुष्प निकले यहीं से। जो जानकी माँ ने बाटे।
बाई ओर पूजाघर के। एक स्तम्भ है दीवार में।।६४।।

इस के छोटे से कोने में। जब भी हाथ डाला माँ ने ।
इच्छित दवाइयां मिले उन्हें। जो गरीबों में बाॅंटे वे।।६५।।

बैठे इस खम्बे को टेक कर। माँ देखे भगवान की ओर।
यही है वह पूजाघर। जहां गंगाजी स्थानापन्न हुई।।६६।।

इसी पूजाघर के पास। पुजारी को दीखी वे ख़ास।
तीन वर्ष, देहांत के बाद। कितने चमत्कार वर्णन करू।।६७।।

पड़ोस में अलमारी थी बड़ी सी। जीस में अन्नपुर्णा विराजी।
इसी के आईने में बतायी। माँ ने श्रीकृष्णलीलायें।।६८।।

यहीं आया था बड़ा सा भ्रमर। नहीं, राजे सयाजी मरणोत्तर।
सात चुहिया आयी थी यहीं पर। लक्ष्मी रूप प्रकटा था।।६९।।

यहीं पश्चीम द्वार और। खिड़की के बीच की जगह पर।
बैठे ध्यान लगा कर। भक्तों की इच्छाए पूर्ण करे।।७०।।

आगे था रसोईघर । पानी रखने की जगह पर।
तीन केंकड़े थे आयें निकल। शिव लिंग बने जीन से।।७१।।

पिछला आँगन देख बताये। मालुजी सारी यादे।
जीस के पश्चिम दिशा में तट है । वेंगणीया नदी का ।।७२।।

यहीं पिशाच्चों का किया उद्धार। गंगाजी को बुला कर।
यहीं आता था नाग मणिधर। माँ के दर्शन करने के लीये ।।७३।।

कालाजी को कराया। दर्शन महांकाली का।
दक्षीण में था एक कमरा। घास और लकड़ीयों से भरा हुआ।।७४।।

यहीं की आग बुझायी माॅं ने। दादा का गर्व हरने ।
तबेला था उत्तर दिशा में । क्षीर समृद्धी थी जहां।।७५।।

तुलसी वृंदावन था आंगन में। फूल सुवासीक चारो दीशा में।
पहले माले गोदाम थे बने। धान्य के, दक्षिण और उत्तर को।।७६।।

देखा प्रसुत स्त्री का कमरा। कुंकुमपदकमल निकले जहां।
ऐसा सारा परिसर देखा। और बैठे पूजाघर में।।७७।।

सारे मिल कर आरती करे । प्रसाद पुष्प अर्पण करे।
जगदम्बा की छबी देखे। जानकी माँ का आभास हुआ।।७८।।

प्रथम अध्याय ‘सावली’* ग्रंथ का । पढ़ा सुळेजी ने वहां।
कुंकुम निकला ढेर सारा। चरणों तले देवी माँ के।।७९।।

(*सावली – यह मराठी भाषा मे मधुकर सुळेजी ने लीखा हुआ जानकी माॅं का मूल चरीत्र है।)

ऐसे आशीर्वाद पाकर। कथन किया अनुभव मनोहर।
‘सावली’ ग्रंथ में सुन्दर। मधुकर सुळेजी ने।।८०।।

कुसुमजी को यहीं। माँ से हुई थी ज्ञान प्राप्ती।
माँ स्वयं सद्गुरु थी। अहोभाग्य कुसुमजी का।।८१।।

यथा समय आगे। भक्त जानकी माँ के।
धीरे धीरे समझने लगे। महत्व कुसुमजी का।।८२।।

बहोत पहले इस विभाग में। देवी के गण रहते थे ।
इसी लिए नाम है। गणदेवी इस गांव का।।८३।।

पर जानकी माँ स्वयं। करे गणदेवी पावन।
गणों के साथ अवतीर्ण। हुई धरती पर जगदम्बा।।८४।।

श्रोताओं आज आप ने। गणदेवी के दर्शन करे।
अपने मन:चक्षु से। तीर्थयात्रा समझे इसे।।८५।।

पर श्रोताओं आप। गणदेवी जाए निश्चित।
पावन करे अपना देह। इस तीरथ के दर्शन से।।८६।।

जो श्रद्धा के विना जाएगा। उसे केवल घर दिखाई देगा।
तीरथ का अनुभव न होगा। अभक्ती के कारण।।८७।।

तुकारामजी संत महाराष्ट्र के। अपने एक अभंग में लिखे।
बीना अनुभव के। भक्ती की मीठास पता न चले।।८८।।

‘शर्करा’ सौ बार लिखने से। उस की मिठास न पता चले।
उस का अनुभव लेना पड़े। मूह में शक्कर ड़ाल कर।।८९।।

वैसे ही भक्ती का रस। नहीं चखते जब तक।
आनंद न मिले तब तक। केवल चर्चा करने से।।९०।।

यही भक्ती भर मन में । जब भक्त गणदेवी जाए।
वह परमानन्द पाये। सारे तीर्थ पाये वहीँ।।९१।।

सच्चे मन से प्रार्थना करे। माँ उठायेंगी बोझ सारे।
वह स्वयं हमें संभाले। अगर करे दृढ़ भक्ती हम।।९२।।

यह कार्य माँ का । कुसुम जी ने चलाया।
कल्पवृक्ष बढने लगा। उन की कृपा का।।९३।।

कुसुमजी के कार्य की । बाते थोडी बताउंगी।
श्रोताओं को है बिनती। थोडा धीरज रखने की ।।९४।।

जैसे ज्योत से ज्योत जले। और जग में हो उजाले।
वैसे कुसुमजी को मिले। जानकी माॅं से दीक्षा।।९५।।

अब श्रोताओं सुने। पते की बात माने।
जाने अंजाने में। भी माॅं को न भुले।।९६।।

माँ का चरित्र पढ़े। एक अध्याय दीन में।
अगर ना समय मिले। तो पढे थोडा थोडा ।।९७।।

जानकी माँ को स्मरे।हर साल उत्सव करे।
मिल कर भक्त सारे।राम नवमी तिथी सर्वोत्तम।।९८।।

माँ के अनुभवों का। कोई अंत नहीं होता।
अगर रखे उन पर निष्ठा। तो अनुभव मिलना निश्चित है।।९९।।

उन्हों ने उद्धार किया। जेठालाल जैसे पापी का।
जो भी भक्त भुला भटका। उसे सही मार्ग पर लाये वे।।१००।।

अनन्य भाव से। जो भी माँ की भक्ती करे।
उसे निश्चित संभालेंगी वे। यह वचन इस ग्रंथ का।।१०१।।

इस अध्याय में कथन किया। गणदेवी का स्थान महिमा।
किसी कारण जाना न हुआ। तो इस तीरथ का स्मरण करे।।१०२।।

कलयुग मे करे पूजन। संतग्रंथों का वाचन चिंतन।
और निरंतर नामस्मरण। आराध्य दैवत और गुरु का।।१०३।।

कबीरजी कह कर गये। मो को कहाँ ढूंढे रे बन्दे।
वैसे ही माँ को रखो ह्रदय में। और मन को मंदीर बनाओ।।१०४।।

जीस मन में माँ विराजे। उसे आप स्वच्छ रखे।
सजायें मंदिर को भक्ती से। पवित्रता ना खोये मन की।।१०५।।

अलौकिक है क़िस्से। जानकी माँ की ममता के।
इतने अनुभव लोगों के। गिनती न पुरी पड़े।।१०६।।

माँ तैयार कृपा बरसाने। हमेशा भक्तों पर अपने।
उन की श्रद्धा दृढ़ करने। संकट में संभाले भक्तों को।।१०७।।

ऐसी प्रार्थना कर। बढूॅं अंतिम अध्याय की ओर।
गुंबद चढ़ाते है आखिर। मंदीर पूर्ण करते समय।।१०८।।

।। ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य सप्तदशोsध्यायः समाप्तः।।

।।शुभं भवतु।।
।।श्रीरस्तु।।

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