हिंदी सावली – अध्याय ९

।। श्री।।
।। अथ नवमोध्याय:।।

श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।

इस अध्याय के आरंभ में। प्रथम अवतार श्री दत्तगुरु के।
श्रीपाद श्रीवल्लभ के। विषय में करे बाते।।१।।

पीठापुर गाव में। अप्पलराज नाम के।
दत्तभक्त ब्राह्मण थे। सुमती शीलवान पत्नी उन की।।२।।

दत्त किसी भी रूप में। आ सकते है घर में।
यह भावना मन में। श्रद्धा संग विराजती थी।।३।।

एक दीन उन के घर। पितरों के श्राद्ध के अवसर।
श्रीदत्त पधारे दोपहर। वेश बदल भिक्षां मांगे।।४।।

ब्राह्मण भोजन से पहेले। श्राद्धान्न का दान करे।
भाव देख दत्त प्रसन्न हुए। बताये ईश्वरी रूप अपना।।५।।

पूछे ब्रह्माणी से। “माँ जो चाहे मांग ले”।
तब सुमती कहे। “आप त्रिभुवनों में प्रसिद्ध है।।६।।

मेरे दो बेटे है। एक लूला एक अँधा है।
बगैर अच्छी संतान के। कैसे काटूँगी जीवन मै।।७।।

माँ कह पुकारा आप ने। आप जैसी संतान चाहुं मै।
नाम हो जीस का त्रिभुवन में। विद्वान् और सुशील हो”।।८।।

दत्तगुरु “तथास्तु” कहे। पर उन के जैसा दूजा न होए।
सो स्वयं जन्म ले। उस घर श्रीपाद नाम से।।९।।

सात साल की आयु में। उपनयन विधी करे।
तब वे चारो वेद पढ़े। मौंजीबंधन के समय।।१०।।

अचंबीत हो लोग सारे। आगे श्रीपाद बड़े हुए।
माँ ब्याह करना चाहे। तब माँ से कहा उन्हों ने।।११।।

“योगी तपस्वी हूं मै । जा रहा हूं संन्यास लेने।
श्रीवल्लभ नाम से जानेंगे। लोग मुझे इस के पश्चात्”।।१२।।

बूढ़े माँ पीता के लिए। अंधे भाई को दृष्टी दे।
लंगड़ा चलने लगे कृपा से। ऐसे दया के सागर वे।१३।।

उन्हें आशीर्वाद देकर। सौ वर्षों की आयू अर्पण कर।
गये तीर्थ यात्रा काशी विश्वेश्वर। बद्रीनारायण और गोकर्ण महाबलेश्वर।।१४।।

एक ब्राह्मणी और। उस का मुर्ख पुत्र।
गरीबी से थे लाचार। भीख मांग जीवन बिताते।।१५।।

बुद्धी नहीं थी पुत्र में। सो जन निंदा का कारण बने।
“पिता गुणवान विद्वान् थे। पुत्र तो किसी भी पात्र नहीं”।।१६।।

अपमानास्पद बोल सुन कर ऐसे। आत्महत्या करना चाहे।
माँ भी उस के संग जाए। कृष्णा नदी में डूबने।।१७।।

तब श्रीपाद श्रीवल्लभ देखे। दोनों को उपदेश करे।
शनी प्रदोष व्रत करने कहे। और मुर्ख पुत्र को बनाये विद्वान।।१८।।

एक धोबी कुरवपुर के। श्रीपाद श्रीवल्लभ की सेवा करे ।
एक दिन कपडे धोते हुए। देखे यवन राजा को।।१९।।

संग अपनी स्त्रीयों के । राजा जलक्रीडा करे।
देख धोबी के मन में। वासना जागी समृद्धी की।।२०।।

तब सद्गुरु उसे कहे। “क्या तू राजा बनना चाहे?”।
धोबी प्रश्न का उत्तर दे। “अब तो बुढ़ापा आया है।।२१।।

पर अगले जन्म में। ज़रूर चाहूँगा मै।
ऐसा सुख उपभोगने। पर आप का स्मरण रहे”।।२२।।

तब कहे श्रीपाद उसे। “अगले जीवन में।
बीदर राज घराने में। तुम जन्म पाओगे।।२३।।

तुम्हारे उत्तर आयुष्य में। मै मिलूंगा फिर से तुम्हे”।
वह जन्मा राज घराने में। संत वाक्य झुठा कैसे हो।।२४।।

वद्य द्वादशी को अश्विन मास के। समाधी ली श्रीगुरु ने।
कृष्णा नदी के प्रवाह में। पर भक्तों को आज भी अनुभव हो।।२५।।

पश्चात उन की समाधी के। वल्लभेश ब्राह्मण ने।
मन्नत मांगी कुरवपुर में। सहस्त्र ब्रह्मण भोजन कराने की।।२६।।

लाभ हुआ व्यापार में । कुरवपुर लगे जाने।
चोर मार डाले रास्ते में । वहाँ प्रकटे श्रीपादश्रीवल्लभ।।२७।।

जीवन दान दिया उसे। भक्तों को संभाले ऐसे।
सच्ची भक्ती के संत प्यासे।और कुछ भी न वे चाहे।।२८।।

उन श्रीपाद श्रीवल्लभ के। आप आशीष पाये।
और ग्रंथ सम्पूर्ण हो जाए। उन के आशीर्वाद से।।२९।।

जैसे सूर्य जहां भी जाए। अपने आप प्रकाश फ़ैलाये।
और अन्धेरा मिट जाए । सूर्य के अस्तित्व से।।३०।।

कुछ ख़ास ना लगे करने। सूर्य को प्रकाश फैलाने।
भक्तों के जीवन का अन्धेरा मिटाने। जानकी चरित्र समर्थ है। ।।३१।।

दादा जाते थे खेतो में। मजदूरों पर नज़र रखने।
गाय भैसे भी चरने। होती थी वहीँ पर।।३२।।

पर कभी कभी जानवर। मालिक को धोखा दे कर।
जाते थे दुसरे के खेतों पर। नुकसान करे खेतों का।।३३।।

ऐसे किसी के खेत में। गयी गाय भैसे चरने।
तो गुस्से से मारने। लगा मालिक उन को ।।३४।।

दादा उसे लगे समझाने । हम तैयार है नुकसान भरने।
पर वो न तैयार था मानने। कोर्ट में जाकर केस करे।।३५।।

बड़े दीनों तक केस चले। पर फैसला न मिले।
जब भी वह दादा से मिले। अपमान करे उन का।।३६।।

दादा बहोत थे चिढते । पर मूह से कुछ ना बोलते।
क्यों के थे बहोत जानते। कोर्ट कचेरी के बारे में।।३७।।

था कोर्ट कचेरी का मामला। ऐसे साल भर न हो फैसला।
वह किसान था गुस्सेवाला। अपशब्द बोले दादा को।।३८।।

पानी उस के खेत में बहे। पर फिर भी खेत सुख जाए।
बाकियों की फसल अच्छी रहे। पर कीड़े पड़े उस के खेत में।।३९।।

सारी फसल कीड़े खाए। किसान निराश हो जाए।
अपने भाग्य को दोष लगाए। तब पत्नी कहे उसे।।४०।।

“जानकी माँ के पास जाकर। क्षमा मांगे पैर छू कर”।
पत्नी की बात सून कर। पहुंचा घर जानकी माँ के।।४१।।

जब पैर माँ के छुए । तब माँ उसे कहे।
“पतीव्रता कभी न सहे। अपने पती का अपमान।।४२।।

कोर्ट से आरोप वापस लो । पती की क्षमा मांग लो।
मेरी बिनती मान लो।” किसान माने माँ की बात।।४३।।

केस निकले कोर्ट से। कहे जानकी माँ से।
अब निःसंदेह मन से। मदद करो मेरी।।४४।।

माँ उस के खेत में जाए। खेत के नाले में पानी बहे।
उस के किनारे चलती रहे। निकाले कुंकुम हाथ से।।४५।।

वह कुंकुम फेकती जाए। पानी में भरपूर मिलाये।
पानी से कुंकुम फैलता जाए। किसान के खेत में।।४६।।

सारी कीड मर गयी। फसल फिर से हरी हुई।
ढेर सारे धान्य की कटाई। कर खुश हुआ किसान।।४७।।

जब बच्चा बदमाशी करे। माँ उसे डांटे मारे।
पर अपराध की क्षमा करे। देख भोला भाव बच्चे का।।४८।।

वैसे किसान के अपराध की। सज़ा उसे माँ ने दी।
पर जब वह सुधारे गलती। बड़े मन से क्षमा किया।।४९।।

एक नया था मजदूर। उस ने लायी थी मछली मार कर।
अच्छा खासा भोजन कर। मज़े ले रहा था मछली के।।५०।।

तब मछली का छिलका। उस के गले में अटका।
हर प्रयत्न कर देखा। पर ना निकले गले से।।५१।।

गले में ऊंगली ड़ाल कर। भी ना निकला बाहर।
नींद ना आये रातभर। खाना पीना छुट गया।।५२।।

जैसे खबर मिली दादा को। वह बुलाये मजदूर को।
कहे घर आने को। सबेरे डॉक्टर के पास जाने।।५३।।

जब वह आया घर में । उसे बिठाये बरामदे में।
डॉक्टर के पास जाने। देर थी, सो खुद बाहर गये।।५४।।

जब कारण पता हुआ। माँ को उस के घर आने का।
माँ ने मालू से कहा। उस के लिए चाय लाने।।५५।।

पर वह संकेत कर कहे। चाय ना पी पाऊंगा मै।
गला बड़ा दर्द करे। पर मालू ले आयी चाय।।५६।।

माँ कहे, “चिंता न करे। थोड़ी सी चाय पी ले”।
वह गले के दर्द से डरे। द्विधा में फसा मन उस का।।५७।।

मालकिन की आज्ञा कैसे टाले। ऐसे सोच कर चाय पी ले।
तो ऊसे पता चले। गले से छीलका निकल गया।।५८।।

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। छिलका कैसे निकल गया।
चाय कैसे पी पाया। कैसे साफ़ हुआ गला।।५९।।

भर आये उस के नयन। माँ के धरे चरण।
तब हुआ दादा का आगमन। कहे “चलो डॉक्टर के पास”।।६०।।

तब उस ने दादा से कहां। “गले से छिलका निकल गया।
अब कोई कारण न रहा। डॉक्टर के पास जाने का”।।६१।।

कुसुम, मालू और कलावती बैठे। एक दीन बरामदे में।
चर्चा करे बातो बातो में । तीर्थ और नदीयों की।।६२।।

इतनी सारी नदियाँ। उन में कौन श्रेष्ठ हुआ।
उन का उद्गम कहाँ से हुआ। बहे कहाँ से कहाँ तक।।६३।।

कहे “गंगा श्रेष्ठ सारी नदीयों में । पावन हो, जो स्नान करो उस में।
सामान्यों के पाप हरने। कैलास से उतरी धरती पर।।६४।।

पर हम ना जा पायेंगे। काशी और ऋषिकेश में।
नहीं लिखा नसीब में। योग पावन होने का।।६५।।

तब वहाँ आयी जानकी माँ। उन्होंने सारा वृत्तान्त सूना।
कहे “किस को है दर्शन करना। चलो मिलाऊ गंगाजी से”।।६६।।

बेटीयाॅं पूछे खुश हो कर। कब जायेंगे यात्रा पर।
तब माँ कहे हस कर। “यात्रा की क्या ज़रुरत है।।६७।।

बुलाऊ गंगाजी को यहीं”।ऐसे कह कर खडी रही।
ध्यान करे, आँखे बंद कर ली। स्मरण करे गंगाजी का।।६८।।

तो बेटियाँ सामने देखे। शुभ्र पानी का प्रवाह दिखे।
बहेते पानी की आवाज़ सुने। लगे दूर से आये पानी।।६९।।

पानी आया आँगन में। बेटियाँ हाथ डाले पानी में।
तीर्थ डाले मूह में। ठण्ड लगे सर्द पानी से।।७०।।

“हर हर गंगे” कह कर। पानी छिड़के अपने ऊपर।
गंगाजी का पूजन कर। छूए माँ के चरण ।।७१।।

तब जानकी माँ कहे। “गंगाजी द्वार पर आये।
उन्हें स्थानापन्न करे। हम घर के भगवान के संग”।।७२।।

माँ गयी पूजाघर। ध्यान करे वहाँ खडी रह कर।
तो गंगाजी अदृश्य हुई बाहर। भीतर आयी लड़कियां।।७३।।

कहे बेटियों से। ऊंगली के इशारे से।
पूजाघर के निचे। स्थान दिया गंगाजी को।।७४।।

बेटीया ज़मीन को कान लगाए। तो पानी की आवाज़ दे सुनाये।
लगे बड़ा सा प्रवाह बहे। ज़मीन के निचे से।।७५।।

जो जो आये घर में। वह कान लगा कर सुने।
आश्चर्य करे मन ही मन में। गंगाजी की आवाज़ सुन कर।।७६।।

लाई ज़मीन पर भगीरथ ने । गणदेवी में लाई जानकी माँ ने।
एक बार पीशाचो का उद्धार करने। दर्शन कराने दूसरी बार।।७७।।

एकबार सबेरे जल्दी उठे। अँधेरे में दिखाई न दे।
रसोईघर में जाए। चाय बनाने के लिए।।७८।।

चूल्हे के पास दिखा चिथड़ा। चुल्हा साफ़ करने का कपड़ा।
समझ कर जैसे पकड़ा। कपड़ा नहीं, साप था वह।।७९।।

जानकी माँ की उंगली पर। साप वह दंश कर ।
चला गया सत्वर। माँ ने पुकारा पती को।।८०।।

उठे सारे बात सून कर। बुलाने लगे डॉक्टर।
माँ कहे सब को जोर दे कर। के वे ना दवाई लेंगी।।८१।।

सोयी रही दीन भर। केवल तीर्थ प्राशन कर।
उंगली पर रोके ज़हर। देहांत तक उंगली काली रही।।८२।।

एक बार रहने के लिए। छबुताई आये कल्याण से।
कर्णिकजी आये बिल्लिमोर्या से। माँ के घर गणदेवी में।।८३।।

कहे “संग जानकी माँ के । खुशी से दीन गुजारेंगे।
पर क्या कभी देवी दर्शन होंगे। इन आँखों से हमें”।।८४।।

जानकी माँ ना कुछ कहे। मुस्करा कर चली जाए।
सारे महमान सो गये। पूजाघर के करीब।।८५।।

रात में छबुताई की। किसी कारण निद्रा खुली।
वे आस पास देखने लगी। पड़े पड़े बिस्तर में।।८६।।

कोई स्त्री थी घूम रही। चूड़ियों की आवाज़ थी आ रही।
किसी ने खोली अलमारी। जगाया श्रीमती कर्णिक को।।८७।।

श्रीमती कर्णिक कहे। छाबुतई को धीरे से।
“मै भी जाग रही हूँ कब से। देख रही हूँ सारा कुछ”।।८८।।

दोनों देखती रहे। सुन्दर गालीचे थे फैलाए।
झूले पर कोई जाए। दूसरी दो स्त्रीयां झुला हिलाए।।८९।।

सजी थी अलंकारों से बहोत। सुन्दर साडी और सर पर मुकुट।
यह दोनों बदले करवट। डर कर सो गयी।।९०।।

दुसरे दीन जल्दी उठे। माँ के साथ चाय पीते पिते।
रात का सारा वृत्तान्त कथे। सून कर बोली जानकी माँ।।९१।।

“क्यों न जगाया आप ने मुझे। दर्शन हुए साक्षात् जगदम्बा के।
अगर उस के पैर छूते। तो बहोत भला हो जाता”।।९२।।

वे दोनों मन में पछताई। पर कभी ना भूल पायी।
वे बहुमूल्य क्षण जब दिखी देवी। गणदेवी में माँ की कृपा से।।९३।।

अधीक मास था इस लिए। माँ कमल के पत्ते चाहे।
भोग परोसने के लिए। घर के भगवान को।।९४।।

बब्बडजी थे घर में। माँ बिनती करे उन्हें।
कहे कमल के पत्ते लाने। ताके व्रत संपन्न हो।।९५।।

बब्बडजी थे नास्तिक। ना माने इश्वर का अस्तित्व।
कहे भक्ती बढाए दुर्बलत्व। भक्ती को माने मनोविकृती।।९६।।

पर लगाव था माँ से। उनकी बात थे मानते।
उन के कहे काम थे करते। किसी भी संदेह के बिना।।९७।।

कमल के पत्ते लाने के लिए। वे तालाब पर गये।
पत्ते जमा कर बाँध लीये। अपने रुमाल में।।९८।।

बांधी गठली रुमाल से। सायकल पर लटकाए उसे।
माँ के घर चल दिये। सायकल पर सवार होकर ।।९९।।

पर उसी समय छुटा रुमाल। पत्ते फैले चारो ओर।
फिर उन्हें बाँध कर। चल दिये घर की ओर।।१००।।

फिर से वही किस्सा दोहराए। इस बार रुमाल कस कर बांधे।
पर जैसे चलने लगे। फिर से छूटे रुमाल की गाँठ।।१०१।।

ऐसे हुआ पाँच बार। फिर अपने आप पर।
कहे बब्बडजी तरस खा कर। “देवी माँ की क्या इच्छा है।।१०२।।

पत्ते न बिखरे इस बार अगर। तो सीधे जाऊं माँ के घर।
और माँ के पैर पकड़ कर। माफी मांगू अज्ञान की।।१०३।।

आज आयी बात समझ में। इंसान प्रयत्न करे कितने।
ईश्वर की इच्छा के सामने। सारे होते है निष्फल”।।१०४।।

मन ही मन सोचे ऐसे। सीधे घर वे पहुंचे।
जाकर माँ के चरण स्पर्शे। कथन करे सारा वृत्तान्त।।१०५।।

तब माँ कहे उन्हें। “अब आयी ना बात समझ में?।
न पवन चले न हीले पन्ने। देवी की इच्छा के विरुद्ध ।।१०६।।

बेकार का अभिमान। होता है विनाश का कारण।
“सून कर छुए माँ के चरण। माँ के भक्त हुए बब्बडजी ।।१०७।।

माँ की देखिये लीलाए। नास्तिक को भक्ती सिखाये।
यह ग्रंथ जो पढ़ लेवे। निःशंक होगा मन उस का ।।१०८।।

।।ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य नवमोsध्यायः समाप्तः।।

।।शुभं भवतु।।
।।श्रीरस्तु।।

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*