हिंदी सावली – अध्याय ४

।। श्री ।।
।। अथ चतुर्थोध्याय:।।

श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।

स्मरण करू शिवजी के । भोलानाथ नाम से।
जो जाने जाते है। उन का आशीर्वाद चाहू।।१।।

वह साम्ब शीव भोला। इच्छा पूर्ण करनेवाला।
उस का मन जो जीत लिया। तो जो चाहो वह पाओगे ।।२।।

शीवजी को पहचाने शिवलिंग से । ऐसे बारह ज्योतिलिंग है।
अब जब बात छेडी है। तो सुनो महिमा उन का।।३।।

पहला बसा है गुजरात। सौराष्ट्र में सोमनाथ।
जो चन्द्र देव ने साक्षात । स्थापन किया।।४।।

दूसरा मल्लिकार्जुन है । जो है आन्ध्र प्रान्त में।
श्रीसैलम गाव में। जहां बसे शिव पार्वती।।५।।

गणेश और कार्तिक स्वामी में। स्पर्धा हुई पृथ्वी प्रदक्षिणा करने। विश्व देखु माता पिता मे । ऐसे सोचे गणेशजी ।।६।।

प्रदक्षिणा माता पिता की । कर स्पर्धा जीत ली।
गुस्से से चल दिये मृगजी*। क्रौंच पर्बत पर बसे।।७।।

(*मृगजी = गणेशजी के बंधु कार्तिक स्वामी)

तब शिवपार्वती स्थित हुए। रहे मल्लिकार्जुन मे वे।
मृगजी से मिलने जाए। अमावस्या और पुनम को ।।८।।

तीसरा उज्जैन का महान्कालेश्वर। दूषण राक्षस को हराकर।
अवन्ती नगरी के पुत्र। रक्षे शिवजी ने यहां।।९।।

चौथा ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर। मध्य प्रदेश में अमलेश्वर।
जहां है शीवजी स्थित। संग श्रीविष्णुजी के ।।१०।।

वहां नदी नर्मदा। ले आकार ॐ का।
इस लिए नाम हुआ स्थल का। श्री ओम्कारेश्वर।।११।।

पांचवा परली वैद्यनाथ। महाराष्ट्र में स्थित।
देव और दानव जब। करे मंथन समुद्र का।।१२।।

तब चौदा रत्नों में दो रत्न। धन्वन्तरी और अमृत।
दानवो से विष्णुजी छुपावत। इस शिवलिंग में।।१३।।

छठा भीमा शंकर। चंद्रभागा के तट पर।
जहां प्रकटे शीव शंकर। नाश करने त्रिपुरासुर दानव का।।१४।।

सातवा रामेश्वर तमिलनाडू में। जहां शीव स्थित हुए।
श्रीराम के बिनती से। भक्तों की इच्छा पूर्ण करने।।१५।।

आठवा नागनाथ महाराष्ट्र में। सुप्रिया नामक भक्त को रक्षने।
शीवजी प्रकटे, सबक सिखाने। दारुक दारुकी राक्षसों को।।१६।।

नववा काशी विश्वनाथ। जहां शीव स्वयं हो प्रकट।
पार्वती संग निवासत। ऐसा इस जगह का महत्व है।।१७।।

दसवा त्र्यम्बकेश्वर। नासिक गाव में स्थित।
महाराष्ट्र में प्रकटत। शीवजी गंगाजी समेत।।१८।।

ग्यारहवा केदारनाथ। हिमालय में हिमाच्छादीत ।
ढूंढें शीवजी को पांडव। भैसा रूप में प्रकटे शीव।।१९।।

पीछे से भीम खींचे। दो टुकड़ो में महेश बटे ।
पिछला हिस्सा केदार बने। अगला पशुपती नाथ नेपाल का।।२०।।

दाहिने अंगूठे से पार्वती। जब सिन्दूर मल रही थी।
तब घ्रिश्नेश्वर की प्रभा उठी। बारहवा ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ।।२१।।

कर स्मरण ज्योतिर्लिंगों के । आशीष पाये सर्व श्रोते।
आशीर्वाद से शिवजी के। ग्रंथ यह सफल हो ।।२२।।

पिछले अध्याय में। पढ़ा ही है आप ने।
किये थे जानकी माँ ने। पिशाच मुक्त घर से ।।२३।।

जैसे पता चली खबर। चला आया दौड़ कर।
जानकी माँ के घर। पहेला मालिक घर का।।२४।।

कहे सूना है मैंने। धन है घर के जमीन में।
सो खोदना चाहूँ मै। खोदने की अनुमती दो।।२५।।

कुछ टूटे फूटे अगर। खोदने के समय पर।
दूंगा फिर से बांध कर। अच्छे से नया सा ।।२६।।

जानकी माँ उसे कहे। मूलपुरुष वहाँ रहे।
ना वह मुक्ती चाहे। भुजंग बन बैठा सम्पत्ती पर ।।२७।।

जो ऊस की सम्पत्ती पर। डाले तू बुरी नज़र।
तो मृत्यू टाल कर। बच ना पायेगा ।।२८।।

तुझे कुछ ना होगा लाभ। पीछे पड जाएगा नाग।
फिर ना पायेगा भाग। चाह कर भी मृत्यु से।।२९।।

तो वह जानकी माँ से बोले। अगर सम्पत्ती ना मिले।
तो न करूंगा शिकवे गीले। पर एक बार अभय दो।।३०।।

मृत्यु तुझ से डरे। अगर तू रक्षा करे ।
तो यम भी वापस फीरे। बगैर लिए जीवन मेरा।।३१।।

माँ बात मान ले। कहे “सम्पत्ती ना तुझे मिले ।
प्रयत्न कर देख ले। एक बार चाहे तो” ।।३२।।

धीरे धीरे खोद ले । तो ज़मीन से निकले।
सम्पत्ती के जगह कोयले । हँसने लगी जानकी माँ।।३३।।

कहे “तेरे नसीब में। कोयले ही है लिखे” ।
तब नसीब को कोसे। चला गया वहाँ से।।३४।।

वह नाग था सेनापती। जीस ने गाड़ी थी संपती।
ऊस ने न ली मुक्ती। सम्पत्ती के मोह से।।३५।।

माँ रात को सो ना पाए। क्यों के भुजंग दर्शन चाहे।
पहेले प्रहर उठ कर जाए । पिछले आँगन में।।३६।।

पीछे पीछे जानकी माँ के। पुत्री कुसुम जाए उठ के।
तो आँगन में देखे। अद्भूत सा दृश्य।।३७।।

अंधरे में दूर से। एक दिया दीखे।
ऐसे लगे चल के। आ रहा है ऊस की ओर ।।३८।।

धीरे धीरे पास जो आये। तो कुसुम चकरा जाये।
देखे जब भुजंग आये। मणी था जीस के सर पर ।।३९।।

जानकी माँ उसे रोक कर। रखे थोड़े अंतर पर।
“लगता है क्या तुम्हे डर” । ऐसे पूछे कुसुम से।।४०।।

सर हिलाकर ना कहे । तब माँ उसे बुलाये।
भुजंग उन के पास आये। चरणों मे रखे सर।।४१।।

ऐसे कुसुम को दर्शन हो । जब खोले फनी वो।
मणी से चारो ओर हो। उजाला ही उजाला।।४२।।

कहेने क्या उस के सर के। बड़ी थाली की तरह दीखे।
सर के ऊपर ज़ख्म दीखे। इसी लिए आया था ।।४३।।

जानकी माँ ऊस के सर पर। कुंकुम लगाए घाव पर।
और ऊस भुजंग पर। हाथ फेरे प्यार से।।४४।।

और कहे ऊस से। “पंधरा दीन नियम से।
रोज़ रात को आने से । ठीक हो जाओगे “।।४५।।

वह भुजंग नाग कालिया। आदेश सुन कर चला गया।
वृद्ध काला शरीर था पाया। सफ़ेद बाल थे शरीर पर।।४६।।

तब जानकी माँ बताये। यही है जो मोक्ष न चाहे।
नाग बन कर धन पर रहे । दर्शन लेने आये मेरे ।।४७।।

ये जहां है बसे। वहां पेड़ गीरे धड से ।
सर पर ज़ख्म हुए ऐसे। कृपा-कुंकुम लगाने आये।।४८।।

ऐसे वह रोज़ आये । जानकी माँ के दर्शन पाए।
पंधरह दीन तक रात में । सारी बेटियाँ देखे उसे ।।४९।।

जीसे हर जगह दीखे इश्वर। वह सब से करे प्यार।
ना करे अंतर। पशु पक्षी या मानव में ।।५०।।

गौशाला में जानकी के । अनेक जानवर थे।
एक भैसाजी थे तगड़े से। डर जाए जो देखे उसे।।५१।।

उन्हें बांधते घर के सामने । माँ लगे सब से कहने ।
यह भैसा पाला मैंने। भाई है मेरा पूर्वजन्म का।।५२।।

रात में सोने से पहेले। जानकी माँ भैसे को पास ले।
वह भी गोद में सर रखे। “उठो” कहे तो उठ कर जाए ।।५३।।

ऐसे अजीब सा रिश्ता। जानकी माॅं ने बनाया था।
एक भी जानवर न था। जो न माने उस की बात।।५४।।

उस गणदेवी गाव में था । और एक भैसा तगड़ा।
जीसे किसी ने था छोडा। देवी माँ को दान कर।।५५।।

यह भैसा मगरूर था। खेतों में जा नुकसान करता।
हर कोई उस से डरता। देवी माँ का नाम लिए।।५६।।

एक दीन वह खडा रहे। सामने जानकी माँ के घर के।
और गुस्से से देखे। जानकी माँ के भैसे को।।५७।।

तब सब डरने लगे। अब जो ये बढे आगे।
तो भैसे को जानकी माँ के। बचा न पायेगा कोई।।५८।।

जानकी का भैसा था शांत। पर अगला गुस्से में आवत।
यह दृश्य जो दादा देखत। तो कहे जानकी माँ से।।५९।।

“अगर इस से लडेगा।तो अपना भैसा मरेगा ।
इस से कई बेहतर होगा। के मै खुद ही मार डालू उसे” ।।६०।।

जानकी माँ से कहे बार बार। “मुझे अभी दो लाकर।
घर में पडा हथियार। ताके जान निकले शांती से”।।।६१।।

जानकी माॅं दौड़ आयी बाहर। स्थीर करी अपनी नजर।
उस मगरूर भैसे पर। तब दादा कहे क्रोध से ।।६२।।

*दादा कहे जानकी माँ से। “अगर लड़े ये दो भैसे ।
तो हम ना हटेंगे बीच से । मरे भी तो डरू नहीं”।।६३।।

यह बात जैसे सूने। राज:कन उठाया माँ ने।
फेक के मारे और कहे जाने। उस भैसे को जानकी माँ।।६४।।

तब वह क्रोधी भैसा। डर के मारे गाव से भागा।
फिर कभी गाव ना लौटा। गाववाले मुक्त हुए डर से।।६५।।

साप का भाव देख कर। करी कृपा उस के उपर।
पर भैसे की मगरूरी देख कर। भगाया उसे गाव से।।६६।।

जब छोटी चुहिया घर आये। घूमते पूजाघर जाये।
तब जानकी माँ सब से कहे। लक्ष्मीजी पधारी है।।६७।।

एक दीन कहे बेटियाँ। “देखो माँ सात चुहीयाँ”।
माँ कहे, “यह है देवियाँ। वस्त्र डाले ढ़को इन्हें”।।६८।।

बेटियों ने आज्ञा सून कर। ढका उन को वस्त्र डाल कर।
वैसे ही पडी रहे रात भर। वस्त्र हटाया सबेरे।।६९।।

जैसे वस्त्र किया दूर। तो चुहियाँ न मिली वहां पर।
सात गुलाब के फूल थे सुन्दर। जैसे लक्ष्मीजी का संकेत।।७०।।

तब वहाँ पर दादा आये । बेटियाँ उन्हें फूल दिखाये ।
जानकी माँ पूजाघर से। आये, हसते और नाचते हुए ।।७१।।

सारे देखे उस की ओर। फूल उडाये ऊपर।
तो वो रुपये बन कर । बरसे घर के अन्दर।।७२।।

लगे, पैसे की बारिश हो। सारे बच्चे खुश हो।
सभी को आश्चर्य हो। और पद वन्दे जानकी माँ के।।७३।।

देख कर दादा की ओर । जानकी माँ कहे हस कर।
“मै ही लक्ष्मी हूँ घर पर। आप के संग बसी हूँ”।।७४।।

चांदी के सिक्के गिने। मिलकर कर सारों ने।
तो पुरे बैय्यालिस बने। जानकी माँ की कृपा से।।७५।।

कहे, “रखो संभाल कर। लक्ष्मी ने खुद लाकर।
दीये है कृपा कर। यह सिक्के चांदी के”।।७६।।

वैसे एक दीन निकले। पानी के पास तीन केंकड़े।
“उन्हें टोकरी के निचे ढके”। ऐसे कहे जानकी माँ ।।७७।।

टोकरी रात भर रहे। जब सबेरे हटाये।
तब तीन शिवलिंग हुए । खेंकड़ो की जगह।।७८।।

माँ वे बाटे बच्चों में । कहे “रखो पूजा में।
शिवजी का वास है इस में। कल्याण होगा आप का”।।७९।।

अंगूर से शिवलिंग थे ।समय के साथ बड़े हुए ।
जैसे उन में जान रहे। सब करे आश्चर्य।।८०।।

उन शिवलिंगों से। तीर्थ निकले श्रावण मास में ।
केसर युक्त कटोरी भर के। मधुर अमृत की तरह।।८१।।

श्रावण मास का था सोमवार । अभिषेक हुआ शिवजी पर।
भोजन हुआ था दोपहर। बैठे थे सारे आँगन में।।८२।।

तो अचानक पवन चल आये । सूखे गीरे पत्ते जमाये।
बेल के पेड़ के सामने लाये। पता न चले कैसे हो।।८३।।

सारे पत्ते जमे ऐसे। पत्तों की राशी में शिवलिंग दीखे।
जानकी माँ कहे सब से। आये थे प्रत्यक्ष भोलेनाथ।।८४।।

पवन के संग आये। “अभिषेक स्वीकारा” ऐसे कहे।
आप को दर्शन देने बनाए। पत्तों का समूह।।८५।।

जैसे वंदन सब करे । तब पत्ते फिर से बिखरे।
ऐसे शीव अवतारे। माँ की सेवा स्वीकारने ।।८६।।

एक दीन जानकी माँ की सहेली। तीर्थयात्रा कर आयी।
अबू अम्बाजी हो आयी। सुनाये माँ को वर्णन।।८७।।

वर्णन सुन्दर अम्बाजी का। जैसे बेटी काला ने सूना ।
कहे माँ से, ले चलो ना। अम्बाजी के दर्शन करने ।।८८।।

तब जानकी माँ ने कहा। “नसीब में नहीं लिखा।
संजोग तुम संग जाने का। क्या कर सके कोई”।।८९।।

मालू कहे, “मै बड़ी होकर । तुम्हे ले जाउंगी वहाँ पर”।
यह सुन सारे हस कर। चले अपनी पढ़ाई करने।।९०।।

तो शाम को देखा काला ने। माँ को चुनरी पहेने।
घर के आगे आँगन में। माँ से पूछे “भेस ये कैसा?”।।९१।।

तो जानकी माँ कहे हस कर। “अभी आई अबू हो कर ।
अंबाजीसे मिल कर। उन्हो ने दी यह चुनडी।।९२।।

प्यार से मिली मुझ से। बर्फी का प्रसाद लीए।
और चुनडी दी अम्बाजी ने। फीर मुझे विदा किया।।९३।।

मै मन के वेग से गयी। सारी बहनों से मिल आयी”।
ऐसे कहे कर बर्फी दी। अपनी बेटियों को ।।९४।।

चुनडी वह काला को देकर। कहे उसे संभाल कर।
रखे अपने पूजा घर। वैसे ही किया काला ने।।९५।।

अब ऐसा आश्चर्य भये। वह चुनरी बढ़ती जाए।
काला ऐसे प्यार पाए। देवी रूपी माँ का।।९६।।

एक दीन माँ जानकी। महाकाली का वर्णन थी गाती।
वर्णन में थी भव्य मूर्ती। उस काली माँ की।।९७।।

भव्यता का ऐसा वर्णन करे। मांग में एक मण का सिन्दूर भरे।
कोसो लंबा कपड़ा लगे। उस की चोली सिलाने।।९८।।

काला सून कर आश्चर्य करे। और माँ से हट्ट करे ।
“जैसे वर्णन में तुम्हारे। वैसे दर्शन कराओ महाकाली के”।।९९।।

ऐसे कुछ दीन बीते। जानकी माँ आँगन में बैठे।
काला को बुलाये प्रेम से। कहे “बैठो मेरे पास।।१००।।

तुम्हारी ज़ीद के कारण। महाकाली को किया निमंत्रण।
तुम्हे देने दर्शन। पधारी है वे यहाँ”।।१०१।।

हाथ रखे सर पर काला के । तो उसे महाकाली दीखे ।
भव्य विश्वरूप में। होश उड गए काला के।।१०२।।

रंग सावला भयंकर। अष्टभुजा थी सुन्दर।
बैठी थी ज़मीन पर । सर पहुंचा था आकाश तक।।१०३।।

जीभ लाल लम्बी बाहर। बहोत पहेने थे अलंकार।
सचेतन था शरीर। देख कर बेहोश हुई काला।।१०४।।

सारी बेटीया आयी दौड़ कर। काला को होश में लाकर।
सारा वृत्तान्त जान कर। आश्चर्य करे सारे।।१०५।।

काला स्पर्शे माँ के चरण। कहे माँ से “मै आयी शरण।
पूर्व जन्मों का था पुण्य। तब आप की बेटी बनी”।।१०६।।

सब से कहे, “माँ देवी स्वरुप। धरा केवल मानव रूप।
हरने भक्तों के पाप और दुःख। अवतार लिया है माँ ने”।।१०७।।

जो करेगा इस ग्रंथ का वाचन। उसे होगी कृपा सम्पन्न।
होंगे देवताओं के दर्शन। जीवन कल्याणमय होगा।।१०८।।

।।ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य चतुर्थोsध्यायः समाप्तः।।
।। शुभं भवतु।।
।। श्रीरस्तु।।

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